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Lightning struck the Mehrangarh Fort
जब आधी रात को मेहरानगढ़ किले पर बिजली गिरी
उस दौर में जोधपुर के महाराजा तख्तसिंह जी (ई.स. 1843-1873) थे। सत्ता संभालते समय उनकी उम्र 24 वर्ष थी। उस दौर में जोधपुर में अंग्रेजों का पोलिटिकल एजेंट नियुक्त हो चुका था। महाराजा अंग्रेज सरकार को सालाना 1 लाख 8 हजार रुपये कर चुकाते थे। महाराजा को नाथों के विद्रोह का भी सामना करना पड़ा और कई सामन्तों ने भी विद्रोह कर दिया था।
उल्लेखनीय है कि सन 1782 से पाकिस्तान स्थित उमरकोट जोधपुर राज्य में आता था। सन 1813 में सिंध के अमीरों ने उमरकोट पर कब्जा कर लिया था। 1843 में अंग्रेजों ने जब उमरकोट को जीत लिया था तब तख्तसिंह जी ने अपनी अंग्रेजों के प्रति स्वामिभक्ति का हवाला देते हुए उनसे उमरकोट वापस माँगा लेकिन अंग्रेजों ने उमरकोट तो जोधपुर को वापस नहीं दिया बल्कि उसके एवज में सालाना 10000 रुपये जोधपुर रियासत को देना स्वीकार किया।
सन 1857 की लगभग आधी रात को जोधपुर मेहरानगढ़ किले की गोपालपोल के पास बारूदखाने पर कड़कड़ाती हुई बिजली गिरी। इससे वहाँ के आस पास का दुहेरा कोट, गोपालपोल, फतेहपोल का एक बड़ा हिस्सा उड़ गया। न केवल किले में बल्कि पूरे शहर में अफरातफरी मच गई। घबराए लोग गंगश्याम जी और आसपास के मंदिरों में प्रार्थना और शरण लेने के लिए भागे। किले से बारूद के जोर से उड़े पत्थर 7 से 8 किलोमीटर दूर चौपासनी गाँव तक चले गए। करीब 400 लोग इन पत्थरों से मारे गए व सैंकड़ों लोग घायल हो गए। किले के एक छोर पर स्थित चामुण्डा माता जी का मंदिर इस हादसे में काफी कुछ क्षतिग्रस्त हो गया था लेकिन मूर्ति चामत्कारिक रूप से बच गयी थी।
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| जब आधी रात को मेहरानगढ़ किले पर बिजली गिरी |
रात्रिकाल में भी राजसेवकों द्वारा बचाव अभियान चलाया गया। उसी रात बादलों की भारी गर्जना के साथ तेज बारिश भी शुरू हो जाने से फायदा भी हुआ और बचाव अभियान में चुनौतियाँ भी बढ़ गयी। बारिश होने से बिखरे हुए बारूद में विस्फोट होना बन्द हो गया। रात्रिकाल में मचे इस हाहाकार का असर मारवाड़ की जनता पर बरसों तक रहा। महाराजा के 30 रानियां, 10 पड़दायतें व 11 तालीम की दावड़ियाँ थी व दस पुत्र भी थे। इस तरह से किले में व शहर में लोगों में भयंकर ख़ौफ़ का माहौल हो गया। अगले दिन सूरज उगने पर जो दृश्य थे, जोधपुर ने ऐसी तबाही पहले कभी नहीं देखी थी।
इस घटना के एक सप्ताह बाद ही मारवाड़ में स्थित एरिनपुरा छावनी में भी 1857 की देशव्यापी क्रान्ति का असर हुआ और वहाँ भी अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह हो गया। इस छावनी को जोधपुर लीजियन कहा जाता था और उसका खर्चा जोधपुर दरबार ही वहन करता था। तख्तसिंह जी ने इस विद्रोह को बड़ी मुश्किल से कुचला व व तत्कालीन गवर्नर जनरल लार्ड केनिंग की वाहवाही लूटी लेकिन अंग्रेजों ने आगे उनके साथ विश्वासघात भी किया। 1870 में सांभर नावां व गुड़ा की नमक की झीलें अंग्रेजों ने महाराजा से छीन ली।
1870 में ही 22 अक्टूबर को लार्ड मेयो ने खास प्रयोजन से मेवाड़ में अपना दरबार लगाया था। उसमें राजस्थान के सभी नरेशों को आमन्त्रित किया गया था। तख्तसिंह जी भी उसमें गए थे लेकिन दरबार में जयपुर व उदयपुर नरेशों की कुर्सियाँ उनकी कुर्सी से आगे लगी होने के कारण नाराज होकर पुनः जोधपुर लौट आये। इस घटना से अंग्रेज उनसे नाराज हुए तथा उनकी तोपों की सलामी 17 से घटाकर 15 कर दी। इसी दरबार में अजमेर में मेयो कॉलेज बनाने का निर्णय लिया गया। महाराजा तख्तसिंह जी ने मजबूरी में ही सही पर एक लाख रुपये का चंदा इस कॉलेज के निर्माण के लिए भेजा था। कालान्तर में देशभर की देशी रियासतों के राजकुमार मेयो कॉलेज में पढ़ते थे।
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By: डॉ अर्जुन सिंह साँखला
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