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Panna Dai(मारवाड़ की पन्ना धाय स्वामि भक्त गोरा धाय)
मेवाड़ में पन्ना धाय की कहानी बहुतायत लोग जानते हैं जिसमें उसने अपने पुत्र का बलिदान देकर राजकुमार उदय सिंह की रक्षा की थी। लेकिन मारवाड़ में भी इसी तरह के बलिदान की एक अद्भुत कथा है।
महाराजा जसवंतसिंह जी (सन् 1629-1678) ने मारवाड़ के जोधपुर साम्राज्य पर 41 वर्ष राज्य किया था। उन 41 वर्षों में से दिल्ली के बादशाह शाहजहाँ के दौर के 20 वर्ष मारवाड़ प्रान्त के बड़ी शान्ति से बीते। परन्तु बाद में औरंगजेब के समय के 21 वर्ष बड़ी उथल पुथल के साथ कई युद्ध करते हुए गुजरे। उन्होंने दिल्ली के तख्त के साथ आपसी समझौता कर शासन चलाया था। उन्होंने औरंगजेब व शाहजहाँ के साथ मिलकर कई युद्ध व अभियान छेड़े थे।
जसवन्त सिंह जी ने अपने शासन का कुछ समय कुछ सैन्य अभियानों के कारण काबुल, अफगानिस्तान में रहकर बिताया था। वहाँ की मिट्टी और अनार के बीज तथा पौधे भेजकर जोधपुर के बाहर कागा की पहाड़ियों के पास एक बगीचा भी लगवाया था। यहाँ के पौधों के इधर उधर फैल जाने से आज भी जोधपुर के अनार मशहूर समझे जाते हैं।
पाकिस्तान में खैबर दर्रे के पास स्थित जमरूद नामक स्थान पर महाराजा जसवन्त सिंह जी की मृत्यु 1678 में हुई थी तब उनका कोई राज्य उत्तराधिकारी नहीं था। उस समय उनकी नरुकी और जादमन दो रानियाँ गर्भवती थी। अतः महाराज के सरदारों ने उनको सती होने से रोक लिया। दोनों रानियों के गर्भ से दो पुत्र उत्पन्न हुए। बड़े राजकुमार का नाम अजितसिंह व छोटे का दलथंबन रखा गया।
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| वीरांगना Panna Dai के बलिदान की कहानी |
औरंगजेब इस स्थिति में जोधपुर को पूरा हड़प जाना चाहता था। अतः उसने योजना बनाकर दोनों रानियों व राजपूत सरदारों को दिल्ली आने का न्यौता भेजा। राजपूत सरदारों को यह भी कहा कि दोनों राजकुमारों के बड़े होने तक उनका पालन पोषण दिल्ली में ही किया जायेगा। वीर दुर्गादास के नेतृत्व में करीब 300 राजपूत सरदारों को औरंगजेब के इरादे ठीक नहीं लगे, ऐसे में मुगलों के कड़े सुरक्षा पहरे से उन्होंने राजकुमार अजित सिंह को निकालने की योजना बनाई।
'अजितोदय' में लिखा है कि चान्दावत मोहकम सिंह की स्त्री ने अपनी दूध पीती हुई कन्या को तो अजितसिंह जी की धाय को सौंप दिया और वह स्वयं इन्हें लेकर मारवाड़ की तरफ रवाना हो गयी। हालांकि एक अन्य ग्रंथ 'राजरूपक' में मोहकम सिंह जी की पत्नी के द्वारा किये गए इस कार्य का उल्लेख नहीं है।
सर्वलोकप्रिय प्रचलित मान्यता यह है कि शिशु महाराजा अजितसिंह जी को मुगल बादशाह के शिकंजे से निकालकर लाने वाली महा बलिदानी गोरा धाय थी जो मनोहर जी गहलोत की पत्नी थी।
सन् 1679 में महाराजा अजितसिंह व दलथंबन का जन्म हुआ। जन्म के कुछ समय बाद दलथम्बन की मृत्यु हो गयी। उस समय मारवाड़ का और कोई उत्तराधिकारी नहीं होने के कारण दिल्ली के शासक औरंगजेब ने मारवाड़ पर कब्जा कर लिया व महाराजा जसवन्त सिंह जी के भतीजे इन्द्रसिंह जी को जोधपुर का शासक बना दिया जो अधिकांश राजपूत सरदारों को मान्य नहीं था।
अजीतसिंह का जन्म होने पर राठौड़ पुन: मारवाड़ का शासन और पद लेने के लिए औरंगजेब के पास गए। तब औरंगजेब ने शर्त रखी कि यदि युवराज अजीतसिंह का लालन-पालन दिल्ली में उसके सामने हो तभी वो ऐसा करेगा क्योंकि औरंगजेब की मंशा अजित सिंह जी को मुस्लिम परम्परा में पालने पोषने की थी। लेकिन महाराजा जसवंत सिंह के स्वामिभक्त रहे वीर दुर्गादास राठौड़ और अन्य राजभक्तों को यह मान्य नहीं था। अत: उन्होंने अजीत सिंह को गुप्त तरीके से औरंगजेब के चंगुल से बचाने की योजना बनाई।
तब जोधपुर के मंडोर निवासी मनोहर गहलोत की पत्नी बघेली रानी जिन्हें गोरा धाय भी कहा जाता था, ने एक सफाईकर्मी का वेश बनाकर अजितसिंह जी को अपने पुत्र से बदलकर उन्हें दिल्ली की सीमा से सुरक्षित बाहर निकाल लिया और लगभग बीस वर्षों तक उनका लालन पालन अपने पुत्र के समान ही किया। इस तरह अपनी स्वामिभक्ति और बलिदान के कारण वे इतिहास में अमर हो गईं। बीस साल बाद अवसर पाकर वीर दुर्गादास राठौड़ और अन्य सरदारों ने पुन: जोधपुर पर अधिकार कर लिया और अजितसिंह जी को राजगद्दी पर विराजमान किया। इस संघर्ष, बहादुरी व बलिदान के लिए राठौड़ों को व गोरा धाय को आज भी याद किया जाता है।
सन् 1712 में महाराजा अजितसिंह जी ने गोरा धाय के बलिदान और उनकी स्मृति में छह खम्भों की एक छतरी का निर्माण करवाया ताकि आने वाली पीढ़ियां उनके बलिदान और स्वामिभक्ति के बारे में उनका स्मरण करती रहें। जोधपुर के हृदय स्थल सोजती गेट से थोड़ा दूर खड़ी यह छतरी आज भी इस कहानी को बयां करती है कि इसमें नीचे पंचत्व में विलीन गोरा धाय पूरे मारवाड़ पर आतप आने की स्थिति में खुद छाता बन गयी थी।
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By: डॉ अर्जुन सिंह साँखला
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