मेहरानगढ़ किले से संबंधित कुछ महत्वपूर्ण बातें

 

Mehrangarh Fort(मेहरानगढ़ किला)

 

मारवाड़ में एक कहावत प्रचलन में है "किलो देखियां टाळ कवो ई नीं ढळै" मतलब कि जोधपुर के लोग सुबह उठकर किला नहीं देखें तो भोजन भी नहीं भाएगा। आइये आज ऐसे ही किले के स्थापित होने के रोचक इतिहास को जानते हैं।

ईस्वी सन् 1458, को जोधपुर से 10 किलोमीटर दूर स्थित मण्डोर के किले में राव जोधा जी का राज्याभिषेक किया गया। मारवाड़ नरेशों की वंशावली में राव सीहा जी (1212-1273) प्रथम थे व राव जोधा उसी परम्परा में 14th शासक थे। उस समय राज्य स्थापना में साथ देने वाले को दान मान देकर जोधा जी ने सम्मानित किया। उस समय उन्होंने मण्डोर के पास जोधेलाव नामक तालाब भी बनवाया। मंडोर की पहाड़ी छोटी होने के कारण राज्य विस्तार व सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए मारवाड़ की राजधानी अन्यत्र ले जाये जाने की आवश्यकता महसूस की गई।

 

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1459 की 12 मई को जोधपुर की पचेटिया (आस पास की पाँच चोटियों में सबसे ऊँची) पहाड़ी पर किले की नींव रखी गयी। ख्यातों के अनुसार जोधा जी ने सबसे पहले मसूरिया पहाड़ी पर किला बनाने का विचार बनाया था। लेकिन कहा जाता है कि सलाहकारों ने इसे भुरभुरा कमजोर पहाड़ बताकर व पानी की कमी का हवाला देकर इस विचार को खारिज करवाया। एक ख्यात के अनुसार मसूरिया पहाड़ी पर तपस्या करने वाले किसी संन्यासी ने जोधा जी को पचेटिया पहाड़ी पर निर्माण की सलाह दी थी।

पचेटिया पहाड़ी पर चिड़ियानाथ नाम के एक योगी तपस्या करते थे। यह पहाड़ी दुर्ग निर्माण के लिहाज से सबसे मजबूत पहाड़ी थी। जोधा जी ने अन्ततः किला वहीं बनाने का निर्णय लिया। इसके लिए सन्यासी को हटाना पड़ा। सन्यासी ने भी जाते जाते "यहाँ जोधपुर में सदैव जल की कमी और अकाल रहेगा" का श्राप दे दिया और जोधपुर से 9 कोस दूर पालासनी गाँव चले गए। राव जी को अपनी गलती का एहसास भी हुआ और अनुनय विनय कर सन्यासी को वर्तमान घंटाघर के पास एक मठ व शिवालय निर्मित कर बुलवाया व महल से रोजाना एक रोठ (बड़ी रोटी) बनकर हमेशा भेजे जाने की व्यवस्था की। फिर ख्यातों के अनुसार सन्यासी  ने खुद के दिए श्राप का तोड़ भी बताया व राज्य की सुरक्षा के लिए प्रतीक रूप में एक तलवार भी दी।

एक अन्य मान्यता व मौखिक ख्यात के अनुसार माँ करणी जी की उपस्थिति में उनके आशीर्वाद से किले की नींव रखी गयी। कहते है राव जी के कहने पर पास के ही मथानिया गाँव के अमरोजी चारण माताजी को आमन्त्रित करने के लिए देशनोक गए थे। स्थापना के समय दुर्ग का नाम गढ़-चिंतामणि दुर्ग व मेहरानगढ़ दुर्ग रखा गया। इस पर भी अलग अलग कहानियां प्रचलित हैं। 

 


किले की नींव में नरबलि

उस दौर में तांत्रिकों का बोलबाला था। किसी ने राव जी को सलाह दी होगी कि नींव में यदि किसी जिन्दा व्यक्ति को चुन दिया जायेगा तो किला अजेय रहेगा। फिर क्या था। खांडा फलसा तक ही बसे शहर में व आसपास के गांवों में डूंडी पीटकर (ढोल बजाकर) संदेश फैलाया गया कि ऐसी बलि देने वाले के परिवार का हित राजपरिवार देखेगा। ऐसे में राजाराम जी मेघवाल नाम के व्यक्ति ने स्वेच्छा से अपना बलिदान दिया था। हालांकि एक अन्य कथा में एक पुष्करणा ब्राह्मण युवा के बलि देने की बात भी कथाओं में आती है लेकिन इतिहासकार राजाराम जी मेघवाल के बलिदान पर एकमत हैं।

ख्यातों में कहा गया है कि जहाँ नरबलि दी गयी थी उसी के पास एक शिला शुभ मुहूर्त के अनुसार लगायी जानी थी लेकिन शिला समय पर नहीं आयी और मुहूर्त को टाला भी नहीं जा सकता था ऐसे में कुछ लोग पास ही के एक ऊँट के बाड़े के दरवाजे की शिला ले आये और उसे स्थापित कर दिया। उस शिला में बाड़े के द्वार को बंद करने के लिए लगाये जाने वाले डंडों के छेद आज भी देखे जा सकते हैं। यह स्थान किले में आज भी 'राव जोधा जी का फलसा' के नाम से जाना जाता है।

खून से तिलक की कहानी

राव जोधा जी का तिलक पुष्करणा पुरोहितों के सानिध्य में हुआ था। कारीगरों ने नापचोक कर किले के एकदम केंद्र में एक चौकी बनवाई। यहाँ पर जोधा जी का पुनः (पूर्व में मण्डोर में) राज्याभिषेक हुआ। मुहूर्त के समय तक कंकु की थाली नहीं आने के स्थिति में राव जी के भाई व बगड़ी नगर ठिकाने के राजा अखैराज जी ने चिड़ियानाथ जी की दी हुई शुभ तलवार से अपने अँगूठे को चीरा दिया और खून का तिलक कर दिया।

इसी कारण जोधपुर में राज्याभिषेक के समय यह शताब्दियों तक परम्परा रही कि शासक कोई बने तिलक बगड़ी नरेश ही करते थे।

इस किले के बारे में 'जंगल बुक' के प्रसिद्ध लेखक रुडयार्ड किपलिंग का कथन आज भी विख्यात है जिसमें उन्होंने कहा कि इस किले को देवदूतों व परियों ने बनाया होगा क्योंकि इंसानों द्वारा इतनी भव्य रचना उस समय असम्भव रही होगी। संरचना के दृष्टिकोण से यह विश्व के श्रेष्ठतम किलों में से एक है।

 

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By: डॉ अर्जुन सिंह साँखला
 

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